NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

डब्ल्यूटीओ में भारत को झुकना क्यों नहीं चाहिए था..

सचिन जैन 

इंडोनेशिया के बाली द्वीप पर 3 से 6  दिसम्बर 2013 तक विश्व व्यापार संगठन की बैठक हुई. दुनिया में भोजन के व्यापार और भोजन के अधिकार के सन्दर्भ में इस बैठक के कुछ कूटनीतिक महत्त्व भी थे. डब्ल्यूटीओ को अस्तित्व में आये अब बीस वर्ष होने जा रहे हैं, पर अब तक सभी 160 सदस्य देशों के बीच वैश्विक व्यपार के लिए एक भी सर्वसम्मत समझौता नहीं हो पाया है. कारण – अमेरिका और यूरोपीय यूनियन ऐसे अनुबंध करवाना चाहते हैं, जिनसे पूरी दुनिया में उनके उत्पाद और उत्पादकों का नियंत्रण हो जाए. उनके लिए डब्ल्यूटीओ दूसरे देशों को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने का जरिया है.


विश्व व्यापार संगठन के तहत समझौते के लिए दो डिब्बे बनाए गए हैं – अम्बर बाक्स (Amber Box) और ग्रीन बाक्स (Green Box). ये बाक्स सरकार द्वारा खर्च की जाने वाली उस राशि को रखने के लिए हैं, जो खाद्य सुरक्षा सब्सिडी के रूप में खर्च की जाती है. अम्बर बाक्स में उस सब्सिडी को रखा जाता है, जिसके बारे में यह नियम है कि कोई भी सरकार अपने कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 प्रतिशत हिस्से से ज्यादा राशि सब्सिडी पर खर्च नहीं करेगा यानी किसानों और हितग्राहियों को मदद नहीं करेगा. यदि उसने यह सीमा पार की तो उस पर व्यापारिक प्रतिबंधात्मक कार्यवाही की जायेगी. भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से अनाज की खरीदी को अमेरिका और यूरोपीय देश अम्बर बाक्स में रखवाना चाहते है; जबकि भारत चाहता है कि इसे ग्रीन बाक्स में रखा जाए. डब्ल्यूटीओ के तहत खाद्य सुरक्षा हेतु लोक भण्डारण के लिए खर्च किये जाने वाली सब्सिडी को खास किस्म के खाते यानी एक हरे डिब्बे (ग्रीन बाक्स) में रखा जाता है. इस डिब्बे के तहत परिभाषित रियायत पर कोई भी सरकार असीमित खर्चा कर सकती है और उस खर्चे को खुले व्यापार के लिए नुकसानदायक नहीं माना जाता है. भारत चाहता है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर होने वाले व्यय को भी ग्रीन बाक्स में रखा जाए क्योंकि इसके तहत व्यापार नहीं किया जाता है, इससे छोटे और मझौले-किसानों को मदद करते हुए हम 87 करोड लोगों को भूख से बचाते हैं. इससे खुले व्यापार को कहाँ नुक्सान पंहुचता है. अमेरिका भारत को इसी पर टंगड़ी मारता है. वह कहता है कि भारत किसानों को ज्यादा न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर जो अनाज खरीदता है, वही अनाज कम कीमत पर लोगों को देता है, इससे खुला बाज़ार प्रभावित होता है.

अमेरिका अपनी सब्सिडी सीधे उपभोक्ताओं को देता है, जिसका लाभ आखिर में बड़े उत्पादकों को होता है. इसके बारे में वह मानता है कि यह सब्सिडी ग्रीन बाक्स में इसलिए है क्योंकि इससे वैश्विक बाज़ार को नुक्सान नहीं होता है. वह ये सच छिपा जाता है कि आखिर में वह अपने घरेलु उपभोग पर ही रियायत खर्च नहीं कर रहा है, बल्कि बड़े औद्योगिक समूहों के को बढ़ाने के लिए सरकारी खजाने का उपयोग कर रहा है ताकि ये भीमकाय समूह छोटे और विकासशील देशों का व्यापारिक और आर्थिक शोषण कर सकें. सालिदेरिते (Solidarite 2013) के एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला अमेरिका ने अपने अनाज कार्यक्रम के तहत आठ करोड हितग्राहियों को एक साल में 182 किलो की सहायता की. इतना ही नहीं अमेरिका ने पोषण सहायता कार्यक्रम या भोजन टिकिट (फ़ूड स्टेम्प) कार्यक्रम के तहत 4.7 करोड हितग्राहियों को एक साल में 241 किलो अनाज रियायती दर पर उपलब्ध करवाया; इसके दूसरी तरह भारत ने अधिकतम 87.3 किलो अनाज सस्ती दर पर लोगों को दिया, जिसका मकसद विपन्नता की स्थिति में लोगों की मदद करना है, और जो सरकार का संवैधानिक दायित्व भी है.

 बाली बैठक के लिए भारत का प्रस्ताव था कि विकासशील देशों के लिए इस सब्सिडी को ग्रीन बाक्स में रखा जाए.  इस बैठक के शुरू होने के पहले तक भारत सरकार का निर्णय था कि खाद्य सुरक्षा के मामले पर हम समझौता नहीं करेंगे. हम उस प्रावधान, जिसे समझौते के प्रारूप में “पीस क्लाज़” कहा जा रहा था, पर सहमत नहीं हैं जिसके तहत यह कहा गया है कि भारत जैसे विकासशील देश खाद्य सुरक्षा पर सरकारी सब्सिडी को कुल कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 प्रतिशत तक सीमित रखेंगे, क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू होने के बाद इस सीमा का टूटना तय है और तब भारत पर अमेरिका जैसे देश प्रतिबंधात्मक कार्यवाही शुरू करवाएंगे. और यदि भारत सरकार अपनी सब्सिडी खर्च को कम रखने का निर्णय लेती है तो इसके मतलब कुछ ये हैं – किसानों को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य में बढौतरी नहीं होगी, सरकार लोगों को 5 किलो प्रति व्यक्ति के क़ानून के प्रावधान को 6  या 7 या 8 किलो नहीं करेगी. इसमे अब अनाज के साथ खाने के तेल और दाल को नहीं जोड़ा जाएगा, क्योंकि इन क़दमों से सरकारी खर्च बढ़ेगा. पहले भारत इस पर तैयार नहीं था और बड़ा अडिग दिखा रहा था कि वह गलत समझौता नहीं करेगा; पर आखिर में उसने समझौता कर लिया कि जब तक कोई अंतिम हल न निकल आये, तब तक वह खाद्य सुरक्षा पर अपने सब्सिडी के खर्चे को और नहीं बढ़ाएगा और मौजूदा स्तर तक ही रखेगा; यानि जनकल्याण और किसानों के हित में अब भारत सरकार कोई नया वित्तीय प्रावधान नहीं करेगी. हांलाकि अब भी मौका है, भारत में एक संसद है एक जीवंत लोकतंत्र भी; यदि सरकार चाहे तो डब्ल्यूटीओ और अमेरिका के दबाव से जूझ सकती है. 

उम्मीद यह की जाना चाहिए थी कि भारत के राजनीतिक दल भारत की सरकार को बाली में झुकने नहीं देंगे, पर यहाँ तो कोई आहट ही सुनाई नहीं दी. बाली में घट रहे घटनाक्रम पर हमारा मीडिया भी मौन रहा, डब्ल्यू टी ओ में पिछले 20 सालों के दौरान जब सबसे पहला कदम उठाया जा रहा था, तब भारत के मीडिया का मौन रहना कई सवाल खडे करता है. उल्लेखनीय यहाँ रहा कि विकासशील देशों के 20 बड़े जन संगठन और नेटवर्क पहले दिल्ली में और फिर बाली में लगातार जन पक्ष को सामने रखते रहे; नहीं तो शायद इस समझौते का रूप और ज्यादा भयावह होता. यह याद रखिये कि अब देश के भीतर इन समझौते पर सहमति बनायी जायेगी और अब भी यदि एकजुट होकर धारदार बहस हो, दबाव बने और राजनीतिक दल अपनी राजनीति साफ़ करें तो हम अब भी इस जंग को जीत सकते हैं.