NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

सुधार या खाद्य सुरक्षा में कटौती?

नितिन सेठी,बिजनेस स्टैण्डर्ड

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के कामकाज में सुधार और पुनर्गठन के लिए एक उच्च स्तरीय शांता कुमार समिति का गठन किया था। इसके बजाय समिति अंत में पूरे कृषि क्षेत्र और सरकार की खाद्य सुरक्षा नीति के पुनर्गठन का एक खाका प्रस्तुत कर गई। ऐसा करके समिति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान चली बहस को फिर से छेड़ दिया कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को जितना संभव हो सके कमतर (सीमित) किया जाना चाहिए या क्या यह मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का एक महंगा सुधार है?

शांता कुमार समिति ने एफसीआई के काम और उसके काम के तरीके में बदलाव के लिए कई सिफारिशें की थीं। लेकिन यह खाद्य सुरक्षा पर एक बड़ी सिफारिश है। समिति सुझाव देती है कि मध्यम अवधि में देश को एफसीआई के माध्यम से सब्सिडीयुक्त अनाज के वितरण के बजाय नकदी हस्तांतरण की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। इसका यह भी मतलब होगा कि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से अनाज खरीदने की भूमिका में खासी कमी आएगी।

लघु अवधि में समिति ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को सीमित करने का सुझाव दिया है। देश की कम से कम 67 फीसदी आबादी को सब्सिडी युक्त अनाज उपलब्ध कराने के बजाय कानून के तहत अधिकतम 40 फीसदी आबादी को कम सब्सिडी पर प्रति व्यक्ति 7 किलोग्राम अनाज (5 किलोग्राम के बजाय) दिया जाना चाहिए। समिति ने 3 रुपये प्रति किलोग्राम पर चावल और 2 रुपये प्रति किलोग्राम पर गेहूं के बजाय सिफारिश की है कि इस कीमत को किसानों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार रखा जाना चाहिए। इससे गरीबों को मिलने वाले अनाज की कीमत तीन से चार गुना बढ़ जाएगी।

वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार की अगुआई वाली समिति 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादे और इसके साथ संसद में अपने रुख से काफी दूर चली गई है, जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर चर्चा हुई थी। वित्त मंत्री अरुण जेटली सहित संसद में मौजूद कई भाजपा सदस्यों ने इस विधेयक की निंदा करते हुए कहा था कि यह कुछ लोगों के ऊपर फेंका जा रहा सामाजिक सुरक्षा का जाल है। कुछ ने इस योजना के सर्वमान्य होने पर सवाल खड़े किए थे। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, ने भी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को निशाने पर लेते हुए उसे संप्रग सरकार द्वारा किए जा रहे प्रचार की तुलना में कम फायदेमंद बताया था। 

विधेयक के पारित होने से पहले उन्होंने कहा था, 'लाभार्थियों के चयन का तरीका यह है कि आप एक मापदंड तय करते हैं, एक सर्वेक्षण करते हैं और फिर पहचान करते हैं कि कौन इस योजना का हकदार है। आपका खाद्य सुरक्षा विधेयक कुछ ऐसा है कि आपने लाभार्थियों की संख्या के संबंध में पहले ही फैसला कर लिया है। और अब आप इस सीमा पर अमल करने के लिए राज्यों पर दबाव बना रहे हैं और ऐसे परिवारों को तलाशने के लिए कह रहे हैं। यह प्रक्रिया इस योजना को कभी सफल नहीं बना सकेगी।'

शांता कुमार समिति द्वारा की गई सिफारिशें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख से पूरी तरह उलट है। इसमें भी केंद्र द्वारा एक कृत्रिम सीमा की सलाह दी गई है और लाभार्थियों की संख्या को देश की कुल आबादी को 40 फीसदी से नीचे रखने का सुझाव दिया गया है। अगर समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया जाता है तो इसका मतलब है कि राजग सरकार ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति रोजाना 29.2 रुपये से कम खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे मान लेगी। दूसरे शब्दों में नैशनल सैंपल सर्वे डाटा पर आधारित उनकी गणनाओं से पता चलता है कि ग्रामीण भारत में 29.2 रुपये प्रति दिन और शहरी भारत में 46.75 रुपये प्रति दिन से ज्यादा खर्च करने वाला खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत लाभ पाने का हकदार नहीं होगा।

शांता कुमार ने अपने रुख को सही ठहराया है। मीडिया रिपोर्ट में कुमार ने कहा, 'जब अधिनियम संसद में आया था, तो कई लोगों ने 67 फीसदी के स्तर को ज्यादा माना था। लेकिन आप चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक हालात को जानते हैं। अगर उस समय चुनाव नजदीक नहीं होते तो कोई भी राजनीतिक दल इस विधेयक को पारित नहीं होने देता। हालांकि हम जानते थे कि आगे हमारी सरकार आ रही है और हम इसमें सुधार करेंगे।'

शांता कुमार की बातों से साफ होता है कि चुनाव के आसपास भाजपा की मुद्रा और रुख अलग था, अब केंद्र में सत्ता में आने के बाद उसका रुख अलग है। लेकिन केंद्र सरकार ने इस तरह की खबरों पर अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है। गरीब लाभार्थियों की पहचान के लिए सर्वेक्षण नए तरीके से किया जाना था। इसके बिना लाभार्थियों की मौजूदा सूची एक दशक से ज्यादा वक्त पुरानी है। वाम दल और कांग्रेस शांता कुमार समिति की रिपोर्ट को एफसीआई में महज सुधार के बजाय खाद्य सुरक्षा कानून पर हमले के रूप में देख सकते हैं। रिपोर्ट में शांता कुमार समिति के सदस्य अशोक गुलाटी की छाप की अनदेखी करना काफी मुश्किल है। 

संप्रग सरकार में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग जो किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सिफारिश करता है, के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई आधिकारिक चर्चा पत्रों के माध्यम से यही रुख जाहिर हुआ था। हालांकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के साथ ही कांग्रेस चुनाव हार गई। शांता कुमार की रिपोर्ट और गुलाटी का नजरिया भले ही अब सरकार के भीतर चर्चा में हो, लेकिन इसका भविष्य इस पर तय होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री की तुलना में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का रुख क्या रहता है।