NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

केन्द्र सरकार की मजदूर विरोधी नीति के खिलाफ (1 मर्इ से 7 मर्इ 2015 तक विरोध सप्ताह)




 प्रेस विज्ञप्ति 

केन्द्र सरकार की मजदूर विरोधी नीति के खिलाफ 1 मर्इ से 7 मर्इ 2015 तक विरोध सप्ताह
पटना, 30 अप्रैल, 2015

भोजन का अधिकार अभियान द्वारा देश के पूर्वी राज्यों- बिहार, झारखण्ड, प. बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा में 1 मर्इ से 7 मर्इ तक केन्द्र की जन विरोधी नीतियों के विरोध में प्रतिरोध सप्ताह मनाया जा रहा है। इस अभियान में विभिन्न संगठन अपने बैनर के साथ शामिल हो रहे हैं।

बिहार के साथियों एवं संगठन के प्रतिनिधियों से अपील की जाती है कि 1 मर्इ मजदूर दिवस के अवसर पर एकजूट हों और अपने-अपने कार्यक्रमों के माध्यम से केन्द्र सरकार के मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें।

वर्ष 1886 में अमेरिका के हेमार्केट में अपने आठ घंटे की कार्यावधी की मांगे के लिए हड़ताल कर रहे मजदूरों की पुलिस द्वारा अंधाधुन फायरिंग कर उनकी हत्या की गर्इ। इस घटना के सवा सौ साल बाद भी मजदूर अपने हक के लिए लाठी-गोली खा रहे हैं। विभिन्न कानूनों के माध्यम से उन पर दमन जारी है। 

भाजपा नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार की नीतियाँ मजदूर विरोधी हैं। जिस प्रकार सरकार नीजी क्षेत्र को प्राकृतिक संसाधनों को लूट की अनुमति, भूमि अधिग्रहण तथा पुंजीपतियों को कर में छूट तथा सार्वजनिक क्षेत्र में निवेष में कटौती कर रही है उससे बेरोजगारी में वृद्धि होगी। बढ़ती आर्थिक विषमता से समाजिक असंतोष में वृद्धि होगी।

लगातार जन संघर्षों के बाद मजदूरों के हित में जो आधे-अधूरे नीतियाँ बनी उन्हें भी वर्तमान सरकार बदलना चाहती है। राजस्थान की भाजपा सरकार ने सर्वप्रथम मजदूरों के हित वाले कानून में नकारात्मक बदलाव किया है। इंडस्ट्रीयल डिस्प्यूट एक्ट के अंतर्गत 300 मजदूर क्षमता वाली कंपनियां बिना सरकार की अनुमति के कंपनी बंद कर मजदूरों का हटा सकती है। इसी आधार पर केन्द्र सरकार स्माल फैक्ट्री (रेगूलेषन आफ इम्प्लायमेन्ट एण्ड कंडीषन आफ सर्वीस) बिल 2014 ला रही है। इसके तहत द फैक्ट्री एक्ट, 1947, द इंडस्ट्रीयल इम्प्लायमेंट (स्टैडिंग आर्डर) एक्ट 1946, न्यूनतम मजदूरी कानून 1948, मजदूरी भुगतान कानून 1936, बोनस भुगतान कानून 1965, द इम्प्लार्इ स्टेट इंसुरेंस एक्ट 1948, द इम्प्लार्इ प्रोविडेंट फंड एण्ड मिसलेनियस प्रोविसन एक्ट 1952, मातृत्व लाभ कानून 1961, द इम्प्लार्इ कम्पेनसेषन एक्ट 1923, द इंटर स्टेट मार्इग्रेंट वर्कमेन (रेगुलेषन आफ इम्प्लायमेन्ट एण्ड कंडीषन आफ सर्वीस) एक्ट 1979, (राज्य) शाप एण्ड इस्टैबलीषमेन्ट एक्ट, द इक्वल रेमुनरेषन एक्ट 1976, द चार्इल्ड लेबर (प्रोहिबिषन एण्ड रेगुलेषन) एक्ट 1986 आयेंगे। ये सारे कानून उन फैक्ट्रीयों में नहीं लागू होंगे जहां 40 से कम मजदूर काम करते हैं।  अत: आज के जमाने में जहां टेक्नोलाजी का सहारा अधिक लिया जाता है वहां इन कानूनों के नहीं लागू होने से मजदूरों का अहित होगा।

बुष-मनमोहन परमााणु करार का भाजपा ने विरोध किया था परन्तु वर्तमान मोदी सरकार ने पहले से ही कमजोर परमाणु दायित्व विधेयक के सेक्षन 17 और सेक्षन 46 को नजरअंदाज करते हुये परमाणु करार पर मुहर लगा दी। इस कारार के अनुसार कोर्इ हादसा होने पर परमाणु रिएक्टर आपूर्तिकर्ता कंपनियां जिम्मेदार नहीं होंगी।

मनरेगा जैसे रोजगारपरक योजनाओं में पिछले वर्ष 2014-15 में 34000 करोड़ रुपये को भी पुरा खर्च नहीं किया जा सका। वर्तमान वितितय वर्ष 2015-16 में भी इतनी राषी ही तय की गर्इ है। इसमें पिछला बकाया शामिल नहीं है। पिछले वर्ष जिन मजदूरों का मजदूरी बकाया था तथा जो योजना अधूरा इन्हें पूरा नहीं किया जा सकेगा। यदि बढ़ती महंगार्इ, बकाया और कार्य मांग के आधार पर हिसाब लगाया जाए तो मनरेगा के लिए कम-से-कम 45000 करोड़ रुपये होना चाहिए। 

केन्द्र द्वारा ग्रामीण विकास विभाग, शहरी विकास विभाग, कृषि आदि की बजट में 20 प्रतिषत तक की कटौती किया जा रहा है। इससे मनरेगा तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावित हो रहा है। श्रम आधारित कार्यक्रम मनरेगा में कटौती से ग्रामीण क्षेत्र के गरीब मजदूरों का अहित और ठेकेदारों को फायदा होगा। मनरेगा में श्रम-सामाग्री अनुपात को 60:40 की जगह 51:49 करने की बात की जा रही है। इस कार्यक्रम के तहत पंचायतों के विकास की योजनाओं के लिये देष भर में लगभग 30000 करोड़ रुपये बैठती है। वर्ष 2015-16 के बजट में मनरेगा के बजट में भारी कटौती की संभावना है साथ ही मनरेगा की की कवरेज भी कम करने की योजना बनायी जा रही है। ऐसा करने से महिलाओं, अनुसूचित जाति, जनजाति को नुकसान तो होगा ही खेती की उत्पादकता में भी कमी आएगी। 

ज़रा मनरेगा की उपलबिधयों पर गौर फरमाते हैं। वर्ष 2008-09 से 2013 तक ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार लगभग साढ़चार करोड़ से लेकर साढ़े पांच करोड़ तक गरीब ग्रामीण परिवारों को रोजगार मिला। यानी देष की कुल ग्रामीण परिवारों का लगभग 30 प्रतिषत। रोजगार पाने वालों में लगभग आधी संख्या महिलाओं की थी और कुल संख्या का पांचवा हिस्सा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों का था। 

इसके अलावे मनरेगा के और भी अन्य फायदे हुये हैं। जैसे- लगभग 2.5 अरब मानव-दिवस का मौसमी रोजगार प्रति वर्ष सृजित कर ग्रामीण इलाकों में छिपी हुर्इ बेरोजगारी या अंष-रोजगार (6.66 अरब मानव-दिवस) की समस्या लगभग 41 प्रतिषत हल हुर्इ। जहां-जहां सही अमल हुआ, वहां मनरेगा की वजह से ग्रामीण इलाकों से मजबूरन पलायन कम हुआ। मनरेगा की आमदनी से ग्रामीणों का क्रय शकित बढ़ने से गांवों में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में वृद्धि हुर्इ। ग्रामीण महिलाओं के हाथों में पैसा आने से उनके कुपोषण की समस्या पर थोड़ा असर पड़ा।

षिक्षा व स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक मदों के खर्चे में कटौती कर नीजीकरण को बढ़ावा दे रही है। विŸािय वर्ष 2014-15 की तुलना में विŸािय वर्ष 2015-16 के बजट में सर्वषिक्षा अभियान में 28258 करोड़ से घटाकर 22000 करोड़ (लगभग 22 प्रतिषत), मध्याहन भोजन योजना में 13215 करोड़ से घटाकर 8900 करोड़ (लगभग 33 प्रतिषत), राष्ट्रीय माध्यमिक षिक्षा अभियान में 5000 करोड़ से घटाकर 3565 करोड़ (लगभग 29 प्रतिषत), समेकित बाल विकास सेवाओं में 18691 करोड़ से घटाकर 8754 करोड़ (लगभग 53 प्रतिषत), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिषन में 21912 करोड़ से घटाकर 18000 (लगभग 17 प्रतिषत), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में 9954 करोड़ से घटाकर 4500 करोड़ (लगभग 55 प्रतिषत) रुपये की भारी कटौती की गर्इ है। (स्रोत: यूनियन बजट)

केन्द्र सरकार द्वारा गठित शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुसंषा की है कि किसानों से अनाज का सीमित उठाव करना चाहिये। इससे किसानों को नुकसान होगा। कमीटी की रिपोर्ट के अनुसार एपीएल-बीपीएल को फिर से आधार बनाकर राषन वितरण किया जाना चाहिये। इसमें अन्त्योदया के लाभार्थी को छोड़कर शेष लाभार्थियों को खाधान्न मूल्य में वृद्धि करते हुये न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे मूल्य पर राषन देने की सिफारिष की गर्इ है। इसके अलावा कमीटी ने खाध सुरक्षा कानून के तहत लाभार्थियों की संख्या को 67 प्रतिषत से घटाकर 45 प्रतिषत करने की बात की है। यदि ऐसा होता है तो बड़ी संख्या में मजदूर और छोटे किसान खाध सुरक्षा के लाभ से वंचित हो जायेंगे। 

वर्तमान समय में मजदूरों को सम्मानजनक मजदूरी नहीं मिल पाता है। महंगार्इ और कर्ज की मार से गरीब, किसान आत्महत्या को मजबूर हैं। ऐसी सिथति में केन्द्र सरकार इनके मूंह से निवाला छिनने का प्रयास कर रही है। 

सरकार राजस्व प्रापित के स्रोतों व राजस्व दरों में वृद्धि के बजाए गरीबों के योजनाओं में कटौती कर रही है। सरकार कारपोरेट क्षेत्र तथा पूंजीपती घरानों को टैक्स में भारी छूट दे रही है। वर्ष 2013-14 में टैक्स छूट 5,49,984.1 करोड़ थी जो बढ़कर वर्ष 2014-15 में 5,89,285.2 करोड़ हो गर्इ। एक अनुमान के अनुसार यह कर माफी कुल कर राजस्व का 43.2 प्रतिषत है। 

हमारे देष में प्रत्यक्ष कर में अप्रत्यक्ष कर के मुकाबले लगातार कमी आ रही है। 100 रुपये में 30 रुपये प्रत्यक्ष कर से जबकि 70 रुपये अप्रत्यक्ष कर से प्राप्त होता है। प्रत्यक्ष कर सकल घरेलु उत्पाद के अनुपात में वर्ष 2009-10 से ठहर गर्इ है जबकि अप्रत्यक्ष कर लगातार बढ़ रहा है। अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से आम जनता से राजस्व इकटठा किया जाता है। इसके बावजूद उनके हित वाले योजना की राषि में कटौती की जा रही है। इसी कारण मंदी के बावजूद उपभोक्ता सामानों के दामों में अप्रत्याषित वृद्धि हुर्इ है।

केन्द्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का संषोधन के लिये भूमि अधिग्रहण अध्यादेष 2014 लाया गया है। इसके दबाव में तत्कालीन सरकार ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गये दमनकारी 1894 के लगभग सवा सौ साल पश्चात लंबे संघर्षों के बाद 2013 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया (इसके समर्थम में भाजपा सांसदों ने भी वोट किया था) जिसमें किसानों की सहमति, सामाजिक असर मूल्यांकन, पुनर्वास-मुआवजे का सिद्धांत स्थापित किया था। वर्तमान सरकार ने इसे तोड़मरोड़ कर बरबाद कर दिया। 


भोजन का अधिकार अभियान (बिहार)
लोक परिषद, बिहार दलित अधिकार मंच (बिहार), एकता परिषद, जन स्वास्थ्य अभियान, बिहार प्रोग्रेसिव एलाएंस, बिहार विमेन्स नेटवर्क, बिहार महिला समाज, झुग्गी-झोपड़ी संघर्ष मोर्चा, लोक समिति, साझी आवाज, सी.ए.सी.एल., जन जागरण शकित संगठन, जल जमाव विरोधी संघर्ष समिति, एन.ए.पी.एम., मुसहर विकास मंच, बिहार वालंटरी फोरम फार एजुकेषन।

केन्द्र सरकार की मजदूर विरोधी नीति के खिलाफ (1 मर्इ से 7 मर्इ 2015 तक विरोध सप्ताह)


 प्रेस विज्ञप्ति 

केन्द्र सरकार की मजदूर विरोधी नीति के खिलाफ 1 मर्इ से 7 मर्इ 2015 तक विरोध सप्ताह
पटना, 30 अप्रैल, 2015

भोजन का अधिकार अभियान द्वारा देश के पूर्वी राज्यों- बिहार, झारखण्ड, प. बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा में 1 मर्इ से 7 मर्इ तक केन्द्र की जन विरोधी नीतियों के विरोध में प्रतिरोध सप्ताह मनाया जा रहा है। इस अभियान में विभिन्न संगठन अपने बैनर के साथ शामिल हो रहे हैं।

बिहार के साथियों एवं संगठन के प्रतिनिधियों से अपील की जाती है कि 1 मर्इ मजदूर दिवस के अवसर पर एकजूट हों और अपने-अपने कार्यक्रमों के माध्यम से केन्द्र सरकार के मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें।

वर्ष 1886 में अमेरिका के हेमार्केट में अपने आठ घंटे की कार्यावधी की मांगे के लिए हड़ताल कर रहे मजदूरों की पुलिस द्वारा अंधाधुन फायरिंग कर उनकी हत्या की गर्इ। इस घटना के सवा सौ साल बाद भी मजदूर अपने हक के लिए लाठी-गोली खा रहे हैं। विभिन्न कानूनों के माध्यम से उन पर दमन जारी है। 

भाजपा नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार की नीतियाँ मजदूर विरोधी हैं। जिस प्रकार सरकार नीजी क्षेत्र को प्राकृतिक संसाधनों को लूट की अनुमति, भूमि अधिग्रहण तथा पुंजीपतियों को कर में छूट तथा सार्वजनिक क्षेत्र में निवेष में कटौती कर रही है उससे बेरोजगारी में वृद्धि होगी। बढ़ती आर्थिक विषमता से समाजिक असंतोष में वृद्धि होगी।

लगातार जन संघर्षों के बाद मजदूरों के हित में जो आधे-अधूरे नीतियाँ बनी उन्हें भी वर्तमान सरकार बदलना चाहती है। राजस्थान की भाजपा सरकार ने सर्वप्रथम मजदूरों के हित वाले कानून में नकारात्मक बदलाव किया है। इंडस्ट्रीयल डिस्प्यूट एक्ट के अंतर्गत 300 मजदूर क्षमता वाली कंपनियां बिना सरकार की अनुमति के कंपनी बंद कर मजदूरों का हटा सकती है। इसी आधार पर केन्द्र सरकार स्माल फैक्ट्री (रेगूलेषन आफ इम्प्लायमेन्ट एण्ड कंडीषन आफ सर्वीस) बिल 2014 ला रही है। इसके तहत द फैक्ट्री एक्ट, 1947, द इंडस्ट्रीयल इम्प्लायमेंट (स्टैडिंग आर्डर) एक्ट 1946, न्यूनतम मजदूरी कानून 1948, मजदूरी भुगतान कानून 1936, बोनस भुगतान कानून 1965, द इम्प्लार्इ स्टेट इंसुरेंस एक्ट 1948, द इम्प्लार्इ प्रोविडेंट फंड एण्ड मिसलेनियस प्रोविसन एक्ट 1952, मातृत्व लाभ कानून 1961, द इम्प्लार्इ कम्पेनसेषन एक्ट 1923, द इंटर स्टेट मार्इग्रेंट वर्कमेन (रेगुलेषन आफ इम्प्लायमेन्ट एण्ड कंडीषन आफ सर्वीस) एक्ट 1979, (राज्य) शाप एण्ड इस्टैबलीषमेन्ट एक्ट, द इक्वल रेमुनरेषन एक्ट 1976, द चार्इल्ड लेबर (प्रोहिबिषन एण्ड रेगुलेषन) एक्ट 1986 आयेंगे। ये सारे कानून उन फैक्ट्रीयों में नहीं लागू होंगे जहां 40 से कम मजदूर काम करते हैं।  अत: आज के जमाने में जहां टेक्नोलाजी का सहारा अधिक लिया जाता है वहां इन कानूनों के नहीं लागू होने से मजदूरों का अहित होगा।

बुष-मनमोहन परमााणु करार का भाजपा ने विरोध किया था परन्तु वर्तमान मोदी सरकार ने पहले से ही कमजोर परमाणु दायित्व विधेयक के सेक्षन 17 और सेक्षन 46 को नजरअंदाज करते हुये परमाणु करार पर मुहर लगा दी। इस कारार के अनुसार कोर्इ हादसा होने पर परमाणु रिएक्टर आपूर्तिकर्ता कंपनियां जिम्मेदार नहीं होंगी।

मनरेगा जैसे रोजगारपरक योजनाओं में पिछले वर्ष 2014-15 में 34000 करोड़ रुपये को भी पुरा खर्च नहीं किया जा सका। वर्तमान वितितय वर्ष 2015-16 में भी इतनी राषी ही तय की गर्इ है। इसमें पिछला बकाया शामिल नहीं है। पिछले वर्ष जिन मजदूरों का मजदूरी बकाया था तथा जो योजना अधूरा इन्हें पूरा नहीं किया जा सकेगा। यदि बढ़ती महंगार्इ, बकाया और कार्य मांग के आधार पर हिसाब लगाया जाए तो मनरेगा के लिए कम-से-कम 45000 करोड़ रुपये होना चाहिए। 

केन्द्र द्वारा ग्रामीण विकास विभाग, शहरी विकास विभाग, कृषि आदि की बजट में 20 प्रतिषत तक की कटौती किया जा रहा है। इससे मनरेगा तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन प्रभावित हो रहा है। श्रम आधारित कार्यक्रम मनरेगा में कटौती से ग्रामीण क्षेत्र के गरीब मजदूरों का अहित और ठेकेदारों को फायदा होगा। मनरेगा में श्रम-सामाग्री अनुपात को 60:40 की जगह 51:49 करने की बात की जा रही है। इस कार्यक्रम के तहत पंचायतों के विकास की योजनाओं के लिये देष भर में लगभग 30000 करोड़ रुपये बैठती है। वर्ष 2015-16 के बजट में मनरेगा के बजट में भारी कटौती की संभावना है साथ ही मनरेगा की की कवरेज भी कम करने की योजना बनायी जा रही है। ऐसा करने से महिलाओं, अनुसूचित जाति, जनजाति को नुकसान तो होगा ही खेती की उत्पादकता में भी कमी आएगी। 

ज़रा मनरेगा की उपलबिधयों पर गौर फरमाते हैं। वर्ष 2008-09 से 2013 तक ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार लगभग साढ़चार करोड़ से लेकर साढ़े पांच करोड़ तक गरीब ग्रामीण परिवारों को रोजगार मिला। यानी देष की कुल ग्रामीण परिवारों का लगभग 30 प्रतिषत। रोजगार पाने वालों में लगभग आधी संख्या महिलाओं की थी और कुल संख्या का पांचवा हिस्सा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों का था। 

इसके अलावे मनरेगा के और भी अन्य फायदे हुये हैं। जैसे- लगभग 2.5 अरब मानव-दिवस का मौसमी रोजगार प्रति वर्ष सृजित कर ग्रामीण इलाकों में छिपी हुर्इ बेरोजगारी या अंष-रोजगार (6.66 अरब मानव-दिवस) की समस्या लगभग 41 प्रतिषत हल हुर्इ। जहां-जहां सही अमल हुआ, वहां मनरेगा की वजह से ग्रामीण इलाकों से मजबूरन पलायन कम हुआ। मनरेगा की आमदनी से ग्रामीणों का क्रय शकित बढ़ने से गांवों में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में वृद्धि हुर्इ। ग्रामीण महिलाओं के हाथों में पैसा आने से उनके कुपोषण की समस्या पर थोड़ा असर पड़ा।

षिक्षा व स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक मदों के खर्चे में कटौती कर नीजीकरण को बढ़ावा दे रही है। विŸािय वर्ष 2014-15 की तुलना में विŸािय वर्ष 2015-16 के बजट में सर्वषिक्षा अभियान में 28258 करोड़ से घटाकर 22000 करोड़ (लगभग 22 प्रतिषत), मध्याहन भोजन योजना में 13215 करोड़ से घटाकर 8900 करोड़ (लगभग 33 प्रतिषत), राष्ट्रीय माध्यमिक षिक्षा अभियान में 5000 करोड़ से घटाकर 3565 करोड़ (लगभग 29 प्रतिषत), समेकित बाल विकास सेवाओं में 18691 करोड़ से घटाकर 8754 करोड़ (लगभग 53 प्रतिषत), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिषन में 21912 करोड़ से घटाकर 18000 (लगभग 17 प्रतिषत), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में 9954 करोड़ से घटाकर 4500 करोड़ (लगभग 55 प्रतिषत) रुपये की भारी कटौती की गर्इ है। (स्रोत: यूनियन बजट)

केन्द्र सरकार द्वारा गठित शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुसंषा की है कि किसानों से अनाज का सीमित उठाव करना चाहिये। इससे किसानों को नुकसान होगा। कमीटी की रिपोर्ट के अनुसार एपीएल-बीपीएल को फिर से आधार बनाकर राषन वितरण किया जाना चाहिये। इसमें अन्त्योदया के लाभार्थी को छोड़कर शेष लाभार्थियों को खाधान्न मूल्य में वृद्धि करते हुये न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे मूल्य पर राषन देने की सिफारिष की गर्इ है। इसके अलावा कमीटी ने खाध सुरक्षा कानून के तहत लाभार्थियों की संख्या को 67 प्रतिषत से घटाकर 45 प्रतिषत करने की बात की है। यदि ऐसा होता है तो बड़ी संख्या में मजदूर और छोटे किसान खाध सुरक्षा के लाभ से वंचित हो जायेंगे। 

वर्तमान समय में मजदूरों को सम्मानजनक मजदूरी नहीं मिल पाता है। महंगार्इ और कर्ज की मार से गरीब, किसान आत्महत्या को मजबूर हैं। ऐसी सिथति में केन्द्र सरकार इनके मूंह से निवाला छिनने का प्रयास कर रही है। 

सरकार राजस्व प्रापित के स्रोतों व राजस्व दरों में वृद्धि के बजाए गरीबों के योजनाओं में कटौती कर रही है। सरकार कारपोरेट क्षेत्र तथा पूंजीपती घरानों को टैक्स में भारी छूट दे रही है। वर्ष 2013-14 में टैक्स छूट 5,49,984.1 करोड़ थी जो बढ़कर वर्ष 2014-15 में 5,89,285.2 करोड़ हो गर्इ। एक अनुमान के अनुसार यह कर माफी कुल कर राजस्व का 43.2 प्रतिषत है। 

हमारे देष में प्रत्यक्ष कर में अप्रत्यक्ष कर के मुकाबले लगातार कमी आ रही है। 100 रुपये में 30 रुपये प्रत्यक्ष कर से जबकि 70 रुपये अप्रत्यक्ष कर से प्राप्त होता है। प्रत्यक्ष कर सकल घरेलु उत्पाद के अनुपात में वर्ष 2009-10 से ठहर गर्इ है जबकि अप्रत्यक्ष कर लगातार बढ़ रहा है। अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से आम जनता से राजस्व इकटठा किया जाता है। इसके बावजूद उनके हित वाले योजना की राषि में कटौती की जा रही है। इसी कारण मंदी के बावजूद उपभोक्ता सामानों के दामों में अप्रत्याषित वृद्धि हुर्इ है।

केन्द्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का संषोधन के लिये भूमि अधिग्रहण अध्यादेष 2014 लाया गया है। इसके दबाव में तत्कालीन सरकार ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गये दमनकारी 1894 के लगभग सवा सौ साल पश्चात लंबे संघर्षों के बाद 2013 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया (इसके समर्थम में भाजपा सांसदों ने भी वोट किया था) जिसमें किसानों की सहमति, सामाजिक असर मूल्यांकन, पुनर्वास-मुआवजे का सिद्धांत स्थापित किया था। वर्तमान सरकार ने इसे तोड़मरोड़ कर बरबाद कर दिया। 


भोजन का अधिकार अभियान (बिहार)
लोक परिषद, बिहार दलित अधिकार मंच (बिहार), एकता परिषद, जन स्वास्थ्य अभियान, बिहार प्रोग्रेसिव एलाएंस, बिहार विमेन्स नेटवर्क, बिहार महिला समाज, झुग्गी-झोपड़ी संघर्ष मोर्चा, लोक समिति, साझी आवाज, सी.ए.सी.एल., जन जागरण शकित संगठन, जल जमाव विरोधी संघर्ष समिति, एन.ए.पी.एम., मुसहर विकास मंच, बिहार वालंटरी फोरम फार एजुकेषन।

सुधार या खाद्य सुरक्षा में कटौती?

नितिन सेठी,बिजनेस स्टैण्डर्ड

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के कामकाज में सुधार और पुनर्गठन के लिए एक उच्च स्तरीय शांता कुमार समिति का गठन किया था। इसके बजाय समिति अंत में पूरे कृषि क्षेत्र और सरकार की खाद्य सुरक्षा नीति के पुनर्गठन का एक खाका प्रस्तुत कर गई। ऐसा करके समिति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान चली बहस को फिर से छेड़ दिया कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को जितना संभव हो सके कमतर (सीमित) किया जाना चाहिए या क्या यह मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का एक महंगा सुधार है?

शांता कुमार समिति ने एफसीआई के काम और उसके काम के तरीके में बदलाव के लिए कई सिफारिशें की थीं। लेकिन यह खाद्य सुरक्षा पर एक बड़ी सिफारिश है। समिति सुझाव देती है कि मध्यम अवधि में देश को एफसीआई के माध्यम से सब्सिडीयुक्त अनाज के वितरण के बजाय नकदी हस्तांतरण की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। इसका यह भी मतलब होगा कि सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से अनाज खरीदने की भूमिका में खासी कमी आएगी।

लघु अवधि में समिति ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को सीमित करने का सुझाव दिया है। देश की कम से कम 67 फीसदी आबादी को सब्सिडी युक्त अनाज उपलब्ध कराने के बजाय कानून के तहत अधिकतम 40 फीसदी आबादी को कम सब्सिडी पर प्रति व्यक्ति 7 किलोग्राम अनाज (5 किलोग्राम के बजाय) दिया जाना चाहिए। समिति ने 3 रुपये प्रति किलोग्राम पर चावल और 2 रुपये प्रति किलोग्राम पर गेहूं के बजाय सिफारिश की है कि इस कीमत को किसानों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधार रखा जाना चाहिए। इससे गरीबों को मिलने वाले अनाज की कीमत तीन से चार गुना बढ़ जाएगी।

वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार की अगुआई वाली समिति 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादे और इसके साथ संसद में अपने रुख से काफी दूर चली गई है, जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर चर्चा हुई थी। वित्त मंत्री अरुण जेटली सहित संसद में मौजूद कई भाजपा सदस्यों ने इस विधेयक की निंदा करते हुए कहा था कि यह कुछ लोगों के ऊपर फेंका जा रहा सामाजिक सुरक्षा का जाल है। कुछ ने इस योजना के सर्वमान्य होने पर सवाल खड़े किए थे। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे, ने भी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को निशाने पर लेते हुए उसे संप्रग सरकार द्वारा किए जा रहे प्रचार की तुलना में कम फायदेमंद बताया था। 

विधेयक के पारित होने से पहले उन्होंने कहा था, 'लाभार्थियों के चयन का तरीका यह है कि आप एक मापदंड तय करते हैं, एक सर्वेक्षण करते हैं और फिर पहचान करते हैं कि कौन इस योजना का हकदार है। आपका खाद्य सुरक्षा विधेयक कुछ ऐसा है कि आपने लाभार्थियों की संख्या के संबंध में पहले ही फैसला कर लिया है। और अब आप इस सीमा पर अमल करने के लिए राज्यों पर दबाव बना रहे हैं और ऐसे परिवारों को तलाशने के लिए कह रहे हैं। यह प्रक्रिया इस योजना को कभी सफल नहीं बना सकेगी।'

शांता कुमार समिति द्वारा की गई सिफारिशें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख से पूरी तरह उलट है। इसमें भी केंद्र द्वारा एक कृत्रिम सीमा की सलाह दी गई है और लाभार्थियों की संख्या को देश की कुल आबादी को 40 फीसदी से नीचे रखने का सुझाव दिया गया है। अगर समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया जाता है तो इसका मतलब है कि राजग सरकार ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति रोजाना 29.2 रुपये से कम खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे मान लेगी। दूसरे शब्दों में नैशनल सैंपल सर्वे डाटा पर आधारित उनकी गणनाओं से पता चलता है कि ग्रामीण भारत में 29.2 रुपये प्रति दिन और शहरी भारत में 46.75 रुपये प्रति दिन से ज्यादा खर्च करने वाला खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत लाभ पाने का हकदार नहीं होगा।

शांता कुमार ने अपने रुख को सही ठहराया है। मीडिया रिपोर्ट में कुमार ने कहा, 'जब अधिनियम संसद में आया था, तो कई लोगों ने 67 फीसदी के स्तर को ज्यादा माना था। लेकिन आप चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक हालात को जानते हैं। अगर उस समय चुनाव नजदीक नहीं होते तो कोई भी राजनीतिक दल इस विधेयक को पारित नहीं होने देता। हालांकि हम जानते थे कि आगे हमारी सरकार आ रही है और हम इसमें सुधार करेंगे।'

शांता कुमार की बातों से साफ होता है कि चुनाव के आसपास भाजपा की मुद्रा और रुख अलग था, अब केंद्र में सत्ता में आने के बाद उसका रुख अलग है। लेकिन केंद्र सरकार ने इस तरह की खबरों पर अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है। गरीब लाभार्थियों की पहचान के लिए सर्वेक्षण नए तरीके से किया जाना था। इसके बिना लाभार्थियों की मौजूदा सूची एक दशक से ज्यादा वक्त पुरानी है। वाम दल और कांग्रेस शांता कुमार समिति की रिपोर्ट को एफसीआई में महज सुधार के बजाय खाद्य सुरक्षा कानून पर हमले के रूप में देख सकते हैं। रिपोर्ट में शांता कुमार समिति के सदस्य अशोक गुलाटी की छाप की अनदेखी करना काफी मुश्किल है। 

संप्रग सरकार में कृषि लागत एवं मूल्य आयोग जो किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सिफारिश करता है, के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई आधिकारिक चर्चा पत्रों के माध्यम से यही रुख जाहिर हुआ था। हालांकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के साथ ही कांग्रेस चुनाव हार गई। शांता कुमार की रिपोर्ट और गुलाटी का नजरिया भले ही अब सरकार के भीतर चर्चा में हो, लेकिन इसका भविष्य इस पर तय होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री की तुलना में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का रुख क्या रहता है।

RIGHT TO FOOD CAMPAIGN CONDEMNS THE REDUCTION IN COVERAGE UNDER NFSA FROM 67% to 40%

Right to Food Campaign
(Secretariat)
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G-46, First Floor, Green Park (Main), New Delhi 110016
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Ph: 011- 29849563, Email: righttofood@gmail.com, Website: www.righttofoodcampaign.in


23rd January 2015
REJECT SHANTA KUMAR COMMITTEE’S RECOMMENDATIONS:
RESIST REDUCTION IN COVERAGE FROM 67% to 40% OF INDIA’s POPULATION AND INCREASE IN PRICES
PROTECT PEOPLE’S ENTITLEMENTS TO FOOD: STRENGTHEN THE NFSA

The National Food Security Act (NFSA) seems to be the next target of this Government which has initiated a process of amending and diluting laws that exist for the protection of the rights of the poor and excluded in our country. First, it was the labour laws and mining laws and then the Land Acquisition Act. Now it is the turn of the NFSA and NREGA.
If the Government accepts the Shanta Kumar Committee’s recommendations for decreasing the coverage under NFSA (from 67% to 40%) and shifting from PDS to cash transfers over the next few years, they will be going back on the promises made by them in Parliament and in the BJP election manifesto. The Committee also recommends increasing of prices from the current Rs. 3 for rice and Rs. 2 for wheat to a price of which is 50% of the MSP. This would be a 3-4 fold increase in the price at which subsidised foodgrains are available from the PDS.
In fact, we would like to remind Shri. Narendra Modi that as the Chief Minister of Gujarat in his September 2013 letter to then Prime Minister Dr. Manmohan Singh on the NFSA he had specifically lamented against potential increases in prices, “I am further saddened to note that as per the proposed pricing structure for the grain, the BPL family will now have to incur Rs 85 more net expenditure per month for availing 35 kg [of grain].” [see Attached Letter in Original]

During the debate on the NFSA on the floor of the Parliament in 2013, many BJP leaders had criticised the then government for bringing in a minimalist legislation. The BJP leaders had then introduced amendments towards universalising PDS benefits to ensure that “every person” shall be entitled to food grains, increasing the quantity of grains and include pulses and oils. Now that they are in a majority in Parliament, it is time for them to ensure that these provisions are included in the Act and not to dilute even the little that has been gained through the NFSA.
Further Finance Minister Arun Jailey, on the floor of the Rajya Sabha during the passage of the law had berated the previous government “you have infact cut down the number of people.”

BJP needs to live up to its manifesto promise of ensuring universal food security. The BJP manifesto states, “BJP has always held that ‘universal food security’ is integral to national security. BJP will take steps to ensure that the benefits of the scheme reach the common man and that the right to food does not remain an act on paper or a political rhetoric…”
Making these changes would only cause a lot of confusion on the ground and result in the greater leakages. The states have only now started to seriously identify and issue new ration cards based on the NFSA. Many states are yet to begin the process. Even with the expanded coverage it is being seen in state after state that is it very difficult to come with an identification criteria and process that will have minimal inclusion and exclusion errors.
Given the extent of hunger and malnutrition and low levels of living, a targeted programme with low coverage (the committee proposes 40%) is bound to fail. In fact, what is required is a move towards a universal PDS. India continues to rank very low in the Global Hunger Index (55th) and Human Development Index (135th). According to the latest NSS estimates (2011-12) 40% of people in rural areas have a consumption expenditure of less than about Rs. 30 a day.
Introducing cash transfers in the place of PDS will have serious negative implications on food security. Further, cash transfers do not automatically solve either the problem of targeting or of leakages. Infact BJP member of parliament Sushma Swaraj had specifically moved an amendment on the floor of the Lok Sabha to “remove the provision of cash transfer and food coupons in lieu of foodgrains entitlements.”  [See Attached Note on Replacing PDS with Cash Transfers].
It does not make any sense to talk about diluting the PDS at a time when states are initiating reforms to strengthen the PDS including door-step delivery of food grains, de-privatisation of ration shops, decentralized procurement, social audits and increased transparency. Indeed, states where such reforms have now been in place for some time such as Tamil Nadu, Andhra Pradesh, Kerala, Odisha and Chhattisgarh are showing lower leakages than others. What is required at this time is a strong message from the central government that there cannot be any further delays in the implementation of the NFSA.
Along with the PDS, the NFSA also has promised universal maternity benefits which we hope to see being rolled out in the upcoming budget. It has been over a year since the NFSA has been passed. By repeatedly delaying the deadline for its implementation, the Government has in fact been violating the Act. There is no meaning to the Parliament passing laws if they can so easily be violated by Governments.
We appeal to the Prime Minister, not to go back on the NFSA and remind Shri. Narendra Modi of his letter to then Prime Minister Dr. Manmohan Singh on the NFSA where he lamented the fact that the Food Security Ordinance is too minimalistic and “does not assure an individual of having two meals a day”. Rather than watering down the very little that has been included in the legislation, with the Delhi elections round the corner,  it is time that the new government not indulge in doublespeak.*.
For more information please contact Kavita Srivastava (9351562965), Dipa Sinha (9650434777) or Alokika Singh (9717852311)

We are,

Members of the Steering Group, Right to Food Campaign

Kavita Srivastava and Dipa Sinha, Convenors, Steering Committee of Right to Food Campaign

National Networks
Jean Drez, VB Rawat (Former Support Group)
Annie Raja, (National Federation for Indian Women)
Colin Gonsalves , (Human Right Law Network)
Aruna Roy, Nikhil Dey and Anjali Bhardwaj, (National Campaign for People's Right to Information)
Madhuresh, Arundhati Dhuru and Ulka Mahajan (National Alliance of People’s Movements)
Asha Mishra and Kashinath Chatterjee (Bharat Gyan Vigyan Samiti)
Ashok Bharti (National Conference of Dalit Organizations)
Anuradha Talwar, Gautam Modi and Madhuri Krishnaswamy (New Trade Union Initiative)
Binayak Sen (People’s Union for Civil Liberties)
Subhash Bhatnagar (National Campaign Committee for Unorganized Sector workers)
Paul Divakar and Asha Kowtal (National Campaign for Dalit Human Rights)
Mira Shiva, Radha Holla and Vandana Prasad (Jan Swasthya Abhiyan)
Ranjeet Kumar Verma, Prahlad Ray, Praveen Kumar, Anand Malakar (Rashtriya Viklang Manch)
Lali Dhakar, Sarawasti Singh, Shilpa Dey and Radha Raghwal (National Forum for Single Women’s Rights)
G V Ramanjaneyulu, Kavita Kuruganthi (Alliance for Sustainable and Holistic Agriculture)
Jashodhara (National Alliance for Maternal Health and Human Rights)
Ilango (National Fishworkers Federation)
Zasia, Sonam, and Noor Jehan (Bhartiya Muslim Mahila Andolan)
Mayank Sinha, National Network on Nomadic and Denotified Nomadic Tribes

State Representatives
M Kodandram, Rama Melkape, Veena Shatrughana (Andhra Pradesh)
Gangabhai and Samir Garg (Chhattisgarh)
Abhay Kumar (Karnataka)
Suresh Sawant, Mukta Srivastava (Maharashtra)
Balram and James Herenj, Gurjeet Singh, Dheeraj (Jharkhand)
Ashok Khandelwal, Shyam and Vijay Lakshmi (Rajasthan)
Sachin Jain (Madhya Pradesh)
Sejal Dand, Neeta Hardikar and (Gujarat)
Saito Basumaatary, Raju Narzari, Bondita Acharya and Sunil Kaul (Assam)
Rupesh,  (Bihar)
V Suresh (Tamil Nadu)
Bidyut Mohanty  Raj Kishore Mishra, (Orissa)
Bindu Singh, Sabina and Richa (Uttar Pradesh)
Pushpa, Dharmendra, Ramendra, Yogesh, Vimla and Sarita (Delhi)
Fr Jothi SJ  and Mr. Saradindu (West Bengal)
Biraj Patnaik, Harsh Mander, Reetika Khera, Manas Ranjan, Vidya Bhushan Rawat, Jean Dreze, Ankita Aggarwal, Swati Narayan and Ritu Priya


Attachments:
  1. 1. In July 2014, immediately after the general elections, the Right to Food Campaign had released the video Modi’s Doublespeak: Universal Food Security available at https://www.youtube.com/watch?v=qoI1NXpM3pk
  2. 3. Note on Replacing PDS with Cash Transfers [Find Attached]
  3. 4. State-wise calculations on Proposed Reduction in Coverage based on Shantha Committee Recommendations [Find Attached]