NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

मातृत्व हक के बिना कैसे अच्छे दिन!

सचिन कुमार जैन

वर्ष 2001 से 2011 के बीच हुई जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से हर साल भारत में लगभग 1.9 करोड़ प्रसव होते हैं, मौजूदा मातृ मृत्यु अनुपात 178 है, जिसके हिसाब से हर साल लगभग 34 हज़ार महिलाएं प्रसव से संबंधित कारणों से अपना जीवन खो देती हैं। 

इतना ही नहीं विश्व बैंक के मुताबिक हर 190 में एक महिला की मृत्यु का कारण मातृत्व से संबंधित जोखिम होता है। इसका मतलब यह है कि हमारे यहां महिलाओं को उनके मौलिक मातृत्व हक नहीं मिल रहे हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून में 30 शब्दों में एक प्रावधान है, जो देश में 39 करोड़ महिलाओं, खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली और अपने घरों को चलाने का बिना पारिश्रमिक वाला श्रम करने वाली महिलाओं को ऐसा हक देता है, जिसके बारे में सरकारें और समाज का रवैया उपेक्षा और भेदभाव से भरपूर रहा है। 


यह प्रावधान प्रत्येक गर्भवती स्त्री और स्तनपान करने वाली माता को कम से कम छह हज़ार रुपए का ऐसी किश्तों में प्रसूति फायदा दिए जाने की व्यवस्था करता है। यह एक शुरुआत भर है। अंतरष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक महिला को कम से कम 14 सप्ताह का आर्थिक लाभ के साथ अवकाश, बच्चे के पालन के लिए हर रोज नियमित अंतराल पर काम से विराम, स्वास्थ्य की जांच और सुरक्षा मिलना चाहिए। इसे ही मातृत्व हक माना जाएगा। 

महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैं कि हर महिला कामकाजी है, फिर वह चाहे आय अर्जित करने के लिए श्रम करे या फिर परिवार-घर को चलाने-बनाने के लिए। इस हिसाब से मातृत्व हक हर महिला का हक है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के मुताबिक 15 से 49 वर्ष की 59 प्रतिशत महिलाओं का मुख्य कार्य घरेलू कामकाज है, जबकि घर का प्रबंधन केवल 0.4 प्रतिशत पुरुषों का ही यह मुख्य काम है। मतलब स्पष्ट है कि घरों में श्रम का इसलिए कोई मोल नहीं आंका जाता है क्योंकि वह काम पुरुष नहीं, बल्कि महिलाएं करती हैं। 

माउंटेन रिसर्च जर्नल में दो साल पहले उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। इसका विषय था- परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओं का योगदान। इस अध्ययन के दौरान पहाड़ी क्षेत्र की महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं। यदि सरकारी दर पर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपए और महिला को 228 रुपए प्राप्त होते। 

पता चला कि समाज में महिलाओं द्वारा जंगल से लकड़ी लाना, पशुधन के लिए चारा इकठ्ठा करना, बच्चों की देखभाल करना, पानी भरना, ये कोई महत्वपूर्ण काम नहीं माने जाते हैं, क्योंकि इनके लिए कोई खर्च नहीं किया जाता है, जबकि ये सभी काम कौशलपूर्ण काम हैं और भारी शारीरिक श्रम मांगते हैं। जब इनमें से कुछ कामों की कीमत का आंकलन (कि यदि किसी व्यक्ति को इस काम के लिए पारिश्रमिक का भुगतान किया जाए या सामग्री बाजार से खरीदी जाए) किया गया तो पता चला कि लकड़ी, चारा, शहद, पानी और सब्जी लाने के लिए सालभर में उस परिवार को 34168 रुपए का खर्च करना पड़ता। चूंकि यह काम घर की महिला बिना पारिश्रमिक कर रही है, इसलिए उस काम को बे-मोल काम मान लिया जाता है। इस महिला को भी मातृत्व हक चाहिए, ताकि वह प्रजनन के चरणों से जुड़े दबावों से उबरकर स्वस्थ और सम्मानजनक स्थिति हासिल कर सके। 

भारत में स्त्रियों की जिंदगी एक काल्पनिक कहानी से कहीं कम नहीं पड़ती। स्त्री सम्मान और अस्मिता की सांस्कृतिक पहल करने वाला समाज कभी भी उसके मातृत्व हकों का सम्मान करता हुआ दिखाई नहीं देता। उसका गर्भवती होना एक स्वाभाविक प्राकृतिक और सामाजिक घटना है, जो समाज को गतिशीलता प्रदान करती है। इसके लिए औरत का जीवन हमेशा और हमेशा के लिए दांव पर होता है। प्रजनन की इस क्रिया को पितृसत्तात्मक समाज बहुत महत्वपूर्ण मानता है, पर हमारी सरकारें औरतों को इसके लिए जरूरी अधिकार देने की बहस में अक्सर औरतों के हितों के खिलाफ खड़ी दिखाई देती हैं। आज जबकि जनांदोलनों से लेकर चुनाव तक की प्रक्रिया में एक बेहतर समाज का सपना दिखाया जा रहा है, वहां प्रश्न यह है कि क्या महिलाओं को मातृत्व हक दिए बिना एक अच्छे दिन की भी कल्पना की जा सकती है? 

मातृत्व हक का मतलब है उन्हें काम से ऐसी छुट्टी मिलना, जिसके लिए उन्हें आर्थिक सहायता मिले या कामकाजी महिलाओं को उनका वेतन मिलता रहे, उन्हें आराम मिलना और जरूरी स्वास्थ्य की सेवाओं की उपलब्धता। इसके साथ ही यह देखते हुए कि हर पांच में से तीन महिलाएं खून की कमी की शिकार हैं, उन्हें पोषण का हक मिलना भी एक अनिवार्यता माना जाना चाहिए। अब तक भारत में केवल उन महिलाओं के लिए ही मातृत्व हकों के प्रावधान रहे हैं, जो संगठित क्षेत्र में काम कर रही हैं। उनके अलावा हर महिला हकों से बेदखल रही है। 

भारत में एक बहुत ही प्रगतिशील मातृत्व हक कानून वर्ष 1961 में बना था, इस क़ानून के मुताबिक हर कारखाने, खदान, दुकान में काम करने वाली महिला को मातृत्व हक मिलना चाहिए। भेदभाव देखिए कि केंद्र सरकार में काम करने वाली महिला को 6 महीने का मातृत्व अवकाश मिलता है और बच्चे के 18 वर्ष का होने तक वह उसकी देखभाल के लिए 2 वर्ष का अवकाश लेने की हकदार होती है। इसके साथ ही यदि गर्भपात होता है तो महिला को 45 दिन का सवैतनिक अवकाश मिलता है, पर मातृत्व हक कानून असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को अधिकतम 12 सप्ताह के अवकाश का ही प्रावधान करता है। उस पर भी तुर्रा यह कि इसके कहीं कोई निगरानी नहीं होती कि क्या वास्तव में महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिल रहा है या उन पर दबाव डाल कर उनसे काम छु़ड़वा दिया जा रहा है। निजी क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर दी जाती हैं कि महिलाओं को खुद काम छोड़ने का निर्णय ले लेना पड़ता है। 

ऐसा नहीं है कि आज सरकार खुद शोषण में शामिल नहीं है। नगर निगम से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तक के क्षेत्र में अब कहीं भी महिलाओं को स्थायी कर्मचारी के रूप में न रखकर संविदा या अनुबंध पर रखा जा रहा है। वे एक ही स्थान पर 10 सालों से काम कर रही हैं, परन्तु नियोक्ता उन महिलाओं के मातृत्व हकों को खारिज करने की हरसंभव कोशिश करते हैं। वर्ष 2012-13 में रोज़गार गारंटी योजना में 73.94 करोड़ दिन का काम महिलाओं ने किया, पर कई गर्भवती महिलाएं प्रसव के 40 घंटे पहले तक श्रम करती रहीं। कई महिलाएं प्रसव से 72 घंटे बाद ही काम पर आ गईं, क्योंकि न तो उन्हें मातृत्व हक के तहत आर्थिक लाभ मिलता है, न ही अवकाश। यह स्थिति महिला और बच्चे दोनों के जीवन को खतरे में डालती है। 

असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने (2007) में अपनी रिपोर्ट में बताया कि भारत में कुल 14.8 करोड़ कामकाजी महिलाएं हैं, इनमें से 14.2 करोड़ असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। इसका मतलब यह है कि 95.94 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं के लिए अधिकार सुनिश्चित ही नहीं हैं। अब बड़ी चुनौती यह है कि 10.69 करोड़ महिलाएं तो कृषि और उससे जुड़े कामों में संलग्न हैं। एक तरह से इस क्षेत्र के तो मातृत्व हक क़ानून में भी मान्यता नहीं है यानी महिला खेतिहर मजदूर पर प्रसव और उससे जुड़ी जटिलताओं के कारण मरने की बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं, क्योंकि वे गरीब भी हैं और कानूनी हकों से वंचित भी। 

बहुत साधारण सी बात है कि मातृत्व हक एक अनिवार्यता है, इसलिए दूसरा प्रश्न यह है कि यदि कोई महिला किसी भी रूप में आय अर्जित करने के लिए काम नहीं कर रही है, तो क्या उसे मातृत्व हक से वंचित किया जाएगा? इससे जुड़ा हुआ सवाल यह है कि क्या अपने घर का काम करना श्रममूलक काम नहीं है? महिलाओं और श्रम के संबंधों पर होने वाले प्रशिक्षण में प्रतिभागियों से अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि आपके घर में सबसे पहले सुबह सोकर कौन उठता है और सबसे आखिर में कौन सोने जाता है? जवाब होता है- घर की कोई महिला! जिनके यहाँ खेती का काम है, वहां कमर से शरीर को मोड़कर धान की रोपाई कौन करता है? 

अब अपने परिवार के खेत में काम करने के लिए तो महिला को कोई मजदूरी मिलती नहीं है, तो क्या वह बे-कामकाजी मानी जाएगी? अब सोचिए कि क्या जो महिलाएं घर के या घरेलू व्यवसाय में भूमिका निभाती हैं, उन्हें मातृत्व हक से वंचित क्यों रखा जाता है! राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के मुताबिक हर महिला को मातृत्व हक के रूप में कम से कम 6 हज़ार रुपए की आर्थिक सहायता पाने का अधिकार है, लेकिन यह राशि न्यायोचित प्रतीत नहीं होती है। वास्तव में इस हक के तहत न्यूनतम मजदूरी के मान से 180 दिन का सवैतनिक अवकाश मिलना चाहिए ताकि वे प्रसव के तीन माह से पहले से लेकर बच्चे के छह माह का हो जाने तक काम पर जाने के लिए मजबूर न हों। 

अब हमारी सरकार को संविधान के मूल अधिकारों के अनुच्छेद 15 (1 और 3), जिसमें लिंग के आधार पर भेदभाव न करते हुए महिलाओं के लिए विशेष उपबंध की व्यवस्था एवं अनुच्छेद 42 में प्रसूति सहायता प्रावधान के मुताबिक सार्वभौमिक मातृत्व हक की व्यवस्था करके लैंगिक भेदभाव और मातृत्व असुरक्षा को खत्म करने की पहल करना होगी। यह काम कठिन इसलिए है क्योंकि नीति बनाने वाले एक बड़े तबके को यह महत्वहीन काम लगता है। भारत सरकार के आर्थिक मसलों की समिति ने इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना का विस्तार इसलिए नहीं होने दिया क्योंकि उन्हें लगा कि यह सरकार के संसाधनों की बर्बादी है। मातृ मृत्यु के अभिशाप को खत्म करना और मातृत्व हक का सम्मान करना, हमारी व्यवस्था चलाने वालों ने सीखा ही नहीं है। उन्हें तो तात्कालिक लाभ के लिए व्यापार करना आता है।