NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

मध्यान्ह भोजन योजना को बचाईये

सचिन कुमार जैन

बिहार कई कारणों से भारतीय जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है. इस बार एक दुखद रूप में बिहार एक ऐसी योजना पर बहस का कारण बना, जिस पर देश आम तौर पर बहस करना छोटा काम समझता रहा है. बिहार के सारण जिले  धरमासती गंडामन गांव के नवसृजित प्राथमिक विधालय में मध्यान्ह भोजन योजना के तहत दिए गए भोजन में जहर मिला होने के कारण २७ बच्चों की मृत्यु हो गयी और शायद जब आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे तब तक इस संख्या में कुछ बढौतरी होने की आशंका भी है. अखबारों, टी वी चैनलों और संवाद के हर मंच पर  मध्यान्ह भोजन योजना के बारे में जो चर्चा हो रही है, वह मुझे एक खतरनाक दिशा में जाती हुई लग रही है.
इस घटना के बाद यह पहला तर्क दिया जा रहा है कि यह योजना बेकार है, स्कूल में खाना देने की जरूरत क्या है. दूसरा तर्क यह कि बच्चे स्कूल खाना खाने नहीं, पढ़ने जाते हैं. यह योजना चला कर हम शिक्षा व्यवस्था को कमज़ोर कर रहे हैं. यह भी कहा गया कि बच्चे स्कूल जाते ही हैं केवल खाना खाने, और खाना खाकर वापस अपने काम पर चले आते हैं. तीसरी बात यह कही गयी कि जो खाना मिलता है उसकी गुणवत्ता बहुत खराब होती है. दाल के नाम पर दाल का पानी मिलता है. चौथी बात यह कि इसमे खूब भ्रष्टाचार है. पांचवी बात यह कि  क्या यह अच्छा लगता है कि हमारे बच्चे थाली-कटोरी लेकर स्कूल जाते हैं, मानो भीख लेने निकले हों. आपके मन में भी ऐसी ही बाते हो सकती हैं. बस इन्ही बातों या तर्कों के जवाब मैं देना चाहता हूँ.  छठवीं बात यह भी कही गयी की आप कुल १० रूपए हर बच्चे पर इस योजना में हर रोज खर्च करते हैं, वह राशि उसके खाते में जमा कर दीजिए और योजना बंद कर दीजिए. भर पेट रहने वाला विशेषज्ञ या व्यक्ति हमेशा भोजन योजना का विरोध करेगा, क्योंकि उसे लगता है कि बच्चों-महिलाओं को सरकार भोजन क्यों दे! ये कभी अपने आप को उन बच्चों की जगह पर महसूस ही नहीं कर पाते हैं जो भूख से साथ जीते हैं. जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ ने आँध्रप्रदेश से गरीबी पर एक खबर में लिखा कि एक जिले में बच्चे और समुदाय यह मांग कर रहे हैं कि रविवार को भी स्कूल खुलना चाहिए और सालाना छुट्टियाँ भी बंद कर देना चाहिए. एक बार तो लगा कि यहाँ शिक्षा के प्रति जबरदस्त लगन और जागरूकता है; पर अध्ययन करने पता चला कि बच्चे हर रोज का स्कूल इसलिए चाहते थे ताकि उन्हे हर दिन भोजन मिल सके. जिस दिन वहाँ स्कूल की छुट्टी होती थी, बच्चे भूखे रहते थे. 

आप एक बार फिर ऊपर लिखे छह तर्क एक साथ पढ़िए और उनके आपसी सम्बन्ध स्थापित कीजिये. क्या आपको इनके बीच कोई जुड़ाव नज़र आता है? मुझे नज़र आता है! मध्यान्ह भोजन योजना के खिलाफ दिए जा रहे ये सभी तर्क आपस में विरोधाभासी हैं. जब कोई यह कहता है कि यह योजना बेकार है और स्कूल में खाना देना क्यों जरूरी है; तो इसका जवाब यह है कि वर्ष १९९५ में एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन से यह पता चला कि स्कूल जाने वाले ८९ प्रतिशत बच्चे भूखे (जी हाँ भूखे) होते हैं. इस भूख के कई कारण हो सकते हैं पर शिकार तो बच्चे ही हैं. भूख के रहते हुए शिक्षा बच्चों के जीवन में प्रवेश कर सकती है क्या? जी नहीं! आपको यह भी बता दें कि भारत की पुरातन शिक्षा व्यवस्था से लेकर आज के विकसित देशों में शिक्षा के साथ भोजन की व्यवस्था को जोड़ कर ही देखा गया है. सच यह है कि बच्चों के भोजन के अधिकार को बाजारवाद की नीतियों के समर्थकों ने भीख के रूप में स्थापित करने की पहल की ताकि समाज के योजना के प्रति दुर्भाव पैदा हो और सरकार इस पर खर्च करना बंद कर दे. दूसरी बता यह है कि भोजन के इसी कार्यक्रम के चलते २४ प्रतिशत (लगभग ३ करोड़ बच्चे) स्कूल जा पाते हैं क्योंकि गरीबी की मार से यह योजना उन्हे बचाती है. योजना के गलत क्रियान्वयन से २७ बच्चों की मृत्यु के आधार पर योजना को बंद करने की बात कर सकते हैं, पर साथ में यह मत भूलिएगा कि इसी तरह की योजनाएं हर साल २ लाख बच्चों को मरने से बचाती भी हैं और इसका प्रभाव आपको आने वाले पीढ़ियों में देखने को मिलेगा. हमारा मीडिया और बाज़ार एक मंच पर साथ आ खड़े हुए है, क्यों? क्योंकि ४ बड़ी कम्पनियाँ यह चाहती हैं कि भारत सरकार पर चूहों, छिपकली और अब जहर के भोजन  के दुष्प्रचार के जरिये दबाव डाला जाए ताकि वह स्कूलों में गरम पके भोजन के स्थान पर पैकेट बंद भोजन की नीति बना दे. ये कम्पनियाँ मध्यान्ह भोजन योजना में बिस्किट और नूडल्स खिलाने जैसे विकल्प लाना चाहती हैं. इससे उन्हे कर रोज १३०० करोड़ रूपए का धंधा मिलेगा. अब आप सिचिये कि यदि छपरा के स्कूल में भोजन यदि किसी फेक्ट्री से आया होता तो क्या मरने वाले बच्चों की संख्या २७ होती! जी नहीं, यह सैंकडों में होती. हम सब जानते हैं कि पैकेट बंद भोजन धीमी मौत देता है, यह बछ्कों को हमेशा के लिए बीमार कर देगा. हम अपने बच्चों को हमेशा के लिए क्यों बीमार करना चाहते हैं? बहुत से लोगों का तर्क है कि बच्चे भोजन करते हैं और स्कूल से चले जाते हैं! जो यह तर्क कर रहे हैं, उन्हे इसका मतलब समझ क्यों नहीं आता? इसका मतलब यह है कि आपके स्कूल में एस अकुच नहीं है जिससे बच्चे वहाँ रुकें और शिक्षित हों. वहाँ शिक्षक नहीं हैं, वहाँ किताबें नहीं हैं, वहाँ सम्मान नहीं है, वहाँ बस हिंसा है. इस असमान और बेकार शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के बजाये हम मध्यान्ह भोजन योजना को क्यों दोष दे रहे हैं. इस योजना के लिए हमेशा से एक अलग व्यवस्था खड़ी करने की बात की जाती रही है, उस जरूरत को पूरा न करने के लिए समाज और व्यवस्था जिम्मेदार है. व्यावस्था तो यह है कि स्कूल में थाली और कटोरी होना चाहिए, यह उपलब्ध नहीं है, इसकी व्यवस्था सुनिश्चित की जाना चाहिए. पंचायतें और स्थानीय निकाय इस योजना  में केवल मूक दर्शक क्यों बने हुए हैं. वे क्यों नहीं इस योजना की निगरानी करते.  तुम्हारी पूरी दुनिया नकद राशि पर आकर खत्म हो जाती है. तुम मध्यान्ह भोजन योजना में नकद की मांग इसलिए नहीं कर रहे हो कि बच्चों को अच्छा भोजन कराना चाहते हो. तुम अपनी जरूरत और अपने व्यसन के लिए कुछ और धन चाहते हो. पिछले २ सालों में हुए अध्ययन बताते हैं कि यदि भोजन योजनाओं में खाने की जगह नकद राशि दी गयी तो व्यस्क पुरुष इसका दुरूपयोग करेंगे और बच्चों-महिलाओं को उनके हक नहीं मिल पाते हैं.