NATIONAL FOOD SECURITY ACT,2013 FULL TEXT

165 ग्राम अनाज का खाद्य सुरक्षा क़ानून

Photo by Zubair

Author: Sachin Kumar Jain

आप खुद ही सोच लीजिये क्या 165 ग्राम अनाज से भुखमरी और कुपोषण दूर होगा? पर भारत की सरकार ऐसा ही मानती है. खाद्य सुरक्षा में दालें और खाने का तेल शामिल नहीं है; क़ानून बन रहा है पर भ्रष्टाचार करने वालो के लिए इसमे लगभग खुली छूट है क्योंकि इसमे अपराध गैर-जमानती गंभीर अपराध नहीं है, फिर भले ही यह भूख-कुपोषण से मौत का कारण क्यों न बने; यह भूख से मुक्ति के बजाये कंपनियों के फायदे कमाने का बड़ा साधन बनेगा क्योंकि इसमे बच्चों के पोषण में ठेकेदारों के लिए खूब मौके दिए गए है. भ्रष्ट सरकार की मंशा सामने आ गयी है.
19 मार्च 2013 को केबिनेट ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंज़ूरी दे दी है.  देश के दस राज्यों ने मांग की थी कि इस क़ानून में देश की पूरी जनसँख्या को शामिल किया जाए और केवल उस तबके को बाहर रखा जाय जो अमीर है, चार पहिया वाहन चलता है, सुनिश्चित रोज़गारधारी है और आयकर का भुगतान करता है. गरीबों की पहचान करने के बजाये अमीरों की पहचान करना आसान होगा. इस मान से देश की 12 से 14 प्रतिशत जनसँख्या खाद्य सुरक्षा क़ानून के फायदों से वंचित की जाती. संकट यह है कि केबिनेट द्वारा पारित विधेयक में यह कहा गया है कि देश की 67 प्रतिशत जनसँख्या को खाद्य सुरक्षा का कानूनी मिलेगा और सभी राज्यों एक समान 67 प्रतिशत जनसँख्या को ही गरीब माना जाएगा. इस मान से देश में विकास का चमकदार चेहरा बन कर उभरे गुजरात और केरल को उत्तरप्रदेश और बिहार के बारबरी में रखा जा रहा है. पिछडे हुए बिहार को विशेष राज्य का दर्ज़ा दिलाने के लिए 17 मार्च को दिल्ली में महारैली करने वाले नितीश कुमार और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने खुद प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा कि गरीबी के मामले में सभी राज्यों को एक तराजू पर तोलना गलत है. यानी गरीबी की रेखा से सम्बंधित अब तक चली आ रही समस्याएं बरकरार रहेंगी. तमिलनाडु सरकार ने तो यहाँ तक कहा था कि हमें इस क़ानून के दायरे से बाहर राखए क्योंकि हम पहले से ही इससे कहीं व्यापक हक वाली योजना चला रहे हैं.

वैज्ञानिक मानकों के अनुसार एक वयस्क व्यक्ति को 14 किलो अनाज, 800 ग्राम तेल और डेढ़ किलो दाल की हर माह जरूरत होती है. सरकार उन्हे इसके एवज में केवल 5 किलो अनाज देगी. इसमे दो बहुत बड़े संकट हैं. पहला – देश की 77 प्रतिशत जनसँख्या को अब भी अपनी आय का 70 प्रतिशत हिस्सा केवल भोजन के लिए खर्च करते रहना पड़ेगा. यानी उन पर मंहगाई और भुखमरी का भार बना रहेगा. दूसरा – कुपोषण भी बना रहेगा क्योंकि प्रोटीन की जरूरत को पूरा करने के लिए दालों और वसा की जरूरत को पूरा करने के लिए खाने के तेल का सरकार ने कोई प्रावधान नहीं किया है. इसका मतलब यह भी है कि सरकार दालों और खाने के तेल के बाज़ार को लाभ कमाने की पूरी छूट दिए रहना चाहती है, फिर भले ही कोग कुपोषण के शिकार बने रहें.  यह दर्दनाक बात है कि सर्वोच्च न्यायालय में यह निर्देश दिया हुआ है कि हर परिवार (औसत 5 सदस्य) को 35 किलो राशन का हक है. इस तरह एक सदस्य को ७ किलो राशन हर माह पाने का हक है. सरकार क़ानून बना कर उसे 2 किलो कम कर रही है.

जिस देश में आधी महिलायें, दो तिहाई किशौरी बालिकाएं खून की कमी की शिकार हैं, जहाँ महिलाओं को समाज अपने शरीर और प्रजनन सम्बन्धी निर्णय लेने का हक़ नहीं देता है, वहां सरकार स्त्री और बच्चों को ही इसके लिए अपराधी मानते हुए भोजन के हक़ सीमित कर रही है. यह स्थिति मातृत्व मृत्य का बड़ा कारण है. हमारी सरकार ने तय किया है कि अब किसी भी परिवार में पहले दो बच्चों को ही जिन्दा रहने का हक़ होगा, इसीलिए उसने पहले दो बच्चों के जन्म पर ही मातृत्व हक़ देने का फैसला किया है. यह सरकार समाज के चरित्र को समझती ही नहीं है कि उसका यह प्रावधान महिलाओं और बच्चों के जीवन के खिलाफ है. दो बच्चों के प्रावधान हो हटाया जाना चाहिए था.

एक झूठ और कहा गया है. सरकार का कहना है कि इससे सब्सिडी बिल 90000 करोड़ से बढ़ कर 1.35 लाख करोड़ हो जाएगा. सच यह है कि अब भी सरकार जनसँख्या की 2011 के जनगणना आंकड़ों का उपयोग न करके वर्ष 2001 की अनुमानित जनसँख्या की आंकड़ों का उपयोग करती है. जिसके कारण 2 करोड़ परिवार सस्ते राशन के अधिकार से वंचित हैं. यदि ईमानदारी से सही जनसँख्या आंकड़ों का उपयोग किया जाए तो सरकार का सब्सिडी खर्चा 1.13 लाख करोड़ तक पंहुच जाता है. यह राशि सरकार द्वारा कार्पोरेट्स और बाज़ार को दी जाने वाली 6 लाख करोड़ की सालाना रियायत का 20 फीसदी से भी कम है. आज अपने सकल घरेलु उत्पाद का लगभग 20 प्रतिशत ही करों के रूप में सरकार के पास आता है, जबकि विकसित देशों में लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा करों के रूप में सरकारी खजाने में आता है. सरकार अब भी इस सच को स्वीकार नहीं कर रही है और उन्हे करो में छूट दिए जा रही है, जिन्हे यह छूट नहीं दी जाना चाहिए. और बाद में बहाना बनाया जाता है कि भूख से मुक्ति के लिए क़ानून पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं है.  उत्पादन यानी की खेती को संरक्षण, विकेन्द्रीकृत खरीदी, भण्डारण और वितरण को अब भी मुख्य विधेयक में जगह नहीं दी गयी है.यह परिशिष्ट में दर्ज है, जिसे बिना संसद की अनुमति के नौकरशाह भी हटा सकता है या बदल सकता है. यानी सरकार अनाज के आयात के पक्ष में है और नहीं चाहती  है कि यह क़ानून देश में किसानों के संकट के निवारण का एक औज़ार बने. बिना किसानों और उत्पादन प्रणाली का स्थानीयीकरण किये हम अपने आर्थिक संसाधनों का सही प्रबंधन नहीं कर पायेंगे. यह सरकार को समझना चाहिए. सच तो यह है कि सरकार अनाज के बदले नकद हस्तांतरण यानी पैसा देने की नीति लाने की कोशिश में जुटी हुई है ताकि खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की नीति को आधार देने का काम किया जा सके. सरकार 67 प्रतिशत जनसँख्या को नकद राशि देगी ताकि वो खुले बाजार में जाएँ और निजी बहुराष्ट्रीय खुदरा कंपनियों से अनाज खरीदें. इस्सका सीधा मतलब यह है कि सरकार का एक लाख करोड रूपया सीधा इन बड़ी कंपनियों के पास जाएगा; किसानों के पास नही.

सरकार हमें शुद्ध और सुरक्षित भोजन देने के बजाये भोजन का रासायनिकीकरण कर रही है. वह जी एम् तकनीक और फोर्टीफिकेशन से भोजन का उत्पादन करवाना चाहती है ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ कमाने का ज्यादा अवसर मिल सके और किसान संकट में आकर अपनी खेती को छोड़ दें, जिससे कम्पनियाँ जमीन, जंगल और पानी पर कब्ज़ा कर पायें.

यह अच्छा है कि विधेयक में अनाज की अभी कीमतें बहुत कम रखी गयी हैं, जिससे लोगों को लाभ तो होगा पर अनाज की मात्रा कम कर दी गयी है जिससे उन्हे शेष अनाज ऊँची कीमत पर खुले बाज़ार से खरीदना होगा. एक मायने से इस विधेयक में जो प्रावधान हैं वे भुखमरी के तात्कालिक कारणों को तो छूते हैं, परन्तु भूख के मूल सवालों को अब भी नज़रंदाज़ करते हैं. यह विधेयक कुपोषण की शर्म से हमें मुक्ति नहीं दिला पायेगा.