सचिन जैन
डब्ल्यूटीओ की बाली
बैठक में ६ दिसम्बर २०१३ को जिस समझौते के किये भारत सरकार राज़ी हो गयी, वह समझौता
साफ़ संकेत देता है कि प्रभावशाली कूटनीतिक पूँजी की ताकत से सामने हम झुक गए. अब न
तो भारत आसानी से न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा सकेगा, न ही खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों
का ज्यादा विस्तार कर सकेगा. इतना ही नहीं बाली समझौते के मुताबिक अब उसे सभी जानकारियाँ
विकसित देशों को देना होंगी. वास्तविकता यह है कि हमारी सरकार अब भी यह तय नहीं कर
पा रही है कि विकसित देशों के लाभ के लिए हम अपनी ताकत यानी खेती को दाँव पर क्यों
लगा रहे हैं? खेती और खाद्य रियायत पर
समझौता करने का मतलब था ६५ करोड किसानों और खाद्य सुरक्षा क़ानून के ८७ करोड लोगों
के हकों को सीमित करने की शुरुआत; क्योंकि इस क़ानून के लागू होते ही खेती को दी
जाने वाली सब्सिडी कृषि उत्पादन के १० फीसदी हिस्से से ऊपर निकल जाना निश्चित है.
इस मामले पर बाली की बैठक शुरू होने के पहले ही जब भारत सरकार को डब्ल्यूटीओ से इन
प्रस्तावित समझौता प्रावधानों का प्रारूप मिला, तभी से यह बहस शुरू हो गयी थी कि
हमारी सरकार क्या इस बिंदु (जिसे पीस क्लाज़ कहा जा रहा था) के लिए सहमत होगी?
भारत
सरकार ने यह तय किया था कि इस मसले पर हम कोई समझौता नहीं करेंगे. उल्लेखनीय है कि
भारत सरकार देश के भीतर अपने नागरिकों के लिए अपने संवैधानिक ढांचे में यदि हक
आधारित खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम चलती है तो उसे डब्ल्यूटीओ वैश्विक व्यापार के लिए
घातक नीति के रूप में प्रचारित किया जाता है. २.९० लाख किसान बदहाल करने वाली
वैश्विक नीतियों के कारण आत्महत्या कर लेते हैं, तो हमें उनकी रक्षा के लिए कोई भी
कदम उठाने से रोका जाता है. ३ दिसंबर २०१३ को जब बाली में इस बैठक का पहला सत्र
शुरू हुआ तो भारत के वाणिज्य मंत्री आनन्द कुमार ने बहुत ठोस पक्ष रखा कि हम इस
बिंदु पर सहमत नहो हो सकते हैं, क्योंकि इससे हमारी लोगों के प्रति प्रतिबद्धता पर
गहरा सवाल खड़ा होता है और लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करते हुए हम भारत के लोगों
के भोजन के अधिकार पर कोई समझौता नहीं करेंगें. बाली बैठक के पहले दिन ही भारत के
इस पक्ष से अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और डब्ल्यूटीओ के माथे पर बल पड़ गए क्योंकि ये
तीनों मानते हैं कि किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद होने से भोजन
का व्यापार करने वाली उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेतहाशा आर्थिक लाभ कमाने के
मौके कम होंगे. वे भारत को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते थे क्योंकि यह दुनिया के सबसे बड़े
बाजारों और उत्पादकों, दोनों ही श्रेणियों में अग्रणी देश है. पहले दिन के बाद यह
सुना जाता रहा कि डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक सहित विकसित देशों के नेता भारत पर दबाव
बनाते रहे कि यह समझौता हो जाए. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि इसके पहले की
डब्ल्यूटीओ मंत्रिस्तरीय बैठकें बीन्स समझौते के खत्म होती रही हैं, यदि बाली भी
असफल हो जाती तो वैश्विक कारोबार में वर्चस्व रखने के लिए बना यह मंच खत्म होने की
कगार पर पंहुच जाता. अमेरिका लगातार भारत पर दबाव बनाता रहा है कि वह खेती और
खाद्य सुरक्षा के लिए किये जाने वाले खर्च को कम करे. उसका तर्क है कि जब सरकार
किसानों को सब्सिडी लोगों को सस्ता राशन देती है तो इससे व्यापार पर नकारात्मक
प्रभाव पड़ता है; और कंपनियों के लाभ कमाने के अवसर कम होते हैं. बहरहाल सच यह है
कि अमेरिका की जनसँख्या भारत की एक चौथाई है, खाद्य सब्सिडी पर भारत अमेरिका से
तीन चौथाई कम खर्चा करता है. अमेरिका ४५ खरब रूपए खर्च करके अपने यहाँ अतिरिक्त
पोषण सहायता कार्यकरण (सप्लीमेंटल, न्युट्रीशन असिस्टेंस प्रोग्राम) चला कर ४.७०
करोड लोगों को ९६४८० रूपए खर्च करके हर साल २४० किलो अनाज की मदद देता है. इसके
दूसरी तरफ भारत, जहाँ ७७ फ़ीसदी लोग ३० रूपए प्रतिदिन से कम खर्च करते हैं, वहां
भारत सरकार यदि पीडीएस के तहत भूख के साथ जीने वाले ४७.५ करोड लोगों को १६२० रूपए
सालाना खर्च करके ५८ किलो सस्ता अनाज देती है तो अमेरिका और उनके मित्र देशों को
दिक्कत होती है. सच तो यह है कि भारत दो स्तरों पर मात खता है; पहला व्यपार को
नुक्सान पंहुचने वाली सब्सिडी के बारे में जब मापदंड तय हुए तब यहाँ कहा गया था कि
सरकारें १९९४ में दिए जाने वाले आर्थिक सहयोग (एग्रीगेट मेज़र आफ सपोर्ट) को आधार माना गया, जब अमेरिका खूब सब्सिडी दे रहा
था और भारत लगभग बिलकुल नहीं दे रहा था; कायदे में तो भारत में यह खर्चा बाद में
बढ़ना शुरू हुआ; पर डब्ल्यूटीओ में हम फँस गए. इसके अलावा समस्या यह भी है कि
सब्सिडी पर होने वाले व्यय का मूल्यांकन १९८६-८८ की कीमतों के आधार पर किया जाता
है, जबकि उत्पादन की वास्तविक लागत उस आधार मूल्य से कहीं ज्यादा बढ़ी हैं. अमेरिका
में खेती पर सब्सिडी १९९५ में ३६.६० खरब रूपए थी, जो २०१० में बढ़ कर ७८.८० खरब
रूपए हो गयी. सभी विकसित देश मिलकर २४४ खरब रूपए की सब्सिडी दे रहे हैं; पर वे
चाहते हैं कि विकाशसील देश अपने किसानों और नागरिकों को कोई रियायती मदद न दें
ताकि उनके (विकसित देशों को) उत्पादन को विकासशील देशों में व्यापार करने का माकूल
वातावरण मिलता रहे और बाज़ार पर उनका कब्ज़ा और मज़बूत हो. बाली के आखिरी दिन ३ बजे
खत्म होने वाली बैठक और आगे चलती रही, मंत्रियों की वापसी की यात्रा का समय आगे
बढ़ा दिया गया; ताकि साफ़-साफ़ न सही, शब्दों के हेर-फेर से तो कोई जाल बुना जा सकता.
यही हुआ. जिस समझौते को हमें स्वीकार किया है, उसके तहत अमेरिका यह कह सकता है कि
भारत की अनाज खरीदी और भण्डारण की व्यवस्था दुनिया में न केवल दुसरे देशों के लिए
चुनौती बन रही है, बल्कि खुले और अनियंत्रित व्यापार के माहौल को भी प्रदूषित कर
रही है. अर्थ यह है कि डब्ल्यूटीओ के इस तरह के कदम भारत सरकार को संविधान से और
दूर ले जाने का सफल काम कर रहे हैं. भारत कह रहा था हम खाद्य सब्सिडी जारी रखेंगे;
डब्ल्यूटीओ ने आखिर में कहा आप मौजूदा स्तर की सब्सिडी जारी रख सकते हैं और भारत
मान गया. यानी विस्तार की संभावनाएं खत्म से हुई लगती हैं.